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संस्कार भारती द्वारा आयोजित रंग सुगंध कार्यक्रम में आज तीन नाटकों की प्रस्तुति हुई।




1, प्रयास, पटना की प्रस्तुति

'दशरथ माँझी'

दशरथ माँझी के जीवन में, उनकी पत्नी का गहलौर पहाड़ी पर पानी का घड़ा फूटना.... उनका प्यासा रह जाना.... इस घटना से दुःखी हो पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का धुन सवार होना, और एक दिन भागीरथी मेहनत और मतवाला साहस के बदौलत पहाड़ काट कर रास्ता बना देना। इन्हीं घटनाओं से दशरथ माँझी माउण्टेन मैन बन इतिहास के पन्नों में दर्ज हो, एक नया इतिहास पुरूष बन गये। मगर इस इतिहास के पीछे उनके 22 वर्षो का अथक संघर्ष रहा।



नाटककार / निर्देशक मिथिलेश सिंह ने नाटक दशरथ माँझी में सत्य के ऊपर कल्पनाओं का चादर ओढ़ाया है, ताकि वह सुंदर दिखे। एक ऐसा व्यक्ति जो पत्नी के चोट लगने के कारण पहाड़ काटने का निर्णय लेता है। वह जरूर सनकी रहा होगा। दशरथ माँझी के चरित्र को गढ़ने में नाटककार / निर्देशक, उनके सनकिया स्वभाव को जीवंत करने के लिए कुछ काल्पनिक घटनाओं का सहारा भी लिया है।

मंच पर

दशरथ माँझी: उदय सागर
फगुनियाँ : रजनी शरण
मंगरू माँझी : दीपक आनंद पुनेसर माँझी / कुली : विनोद कुमार यादव
कुमुद रंजन 'लेख'
:- गिरीश मोहन

मंच के परे
संगीत संरचना
:- संजय उपाध्याय (पू० निदेशक म०प्र०ना० वि०, भोपाल )
गीत
:- सतीश कुमार मिश्रा / मिथिलेश सिंह
गायिका
:- बबीता रावत (उत्तराखण्ड)
गायक
:- संजय उपाध्याय / पुनीत मिश्रा
रिकॉर्डिंग स्टुडियो
वाट्स नेक्सट स्टुडियो, नई दिल्ली
रिकॉडिस्ट
:- पंकज शर्मा
स्पेशल साउंड इफेक्ट्स
:- किशोर सिन्हा / बृज बिहारी मिश्रा
मंच परिकल्पना
:- पद्मश्री प्रो. श्याम शर्मा
मंच निर्माण
:- सुनिल शर्मा, राकेश कुमार, रंजय कुमार
कला / रूप सज्जा
:- उदय कुमार शंकर
प्रोपर्टी इंचार्ज / लेखा अधिकारी
:- रामेश्वर कुमार
वेष-भुषा समाग्री
सत्यनारायण कुमार, विजय कु· सिंह :-
वस्त्र विन्यास
:- गुड़िया सिंह, रूपा सिंह, बीणा गुप्ता
मंच व्यवस्था
:- सिद्धांत कुमार, राकेश कुमार, आदित्य पाण्डेय
प्रकाश संरचना
:- राहूल रवि
सहायक निर्देशक
:- अभिषेक चौहान
ध्वनि संचालक / सह निर्देशक : रवि भूषण 'बबलु'
लेखक-निर्देशक
:- मिथिलेश सिंह


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2, कफ़्फ़्न ( बज्जिका)
909 वी प्रस्तुति 

कथासर

कलम के जादूगर मुन्शी प्रेमचन्द की कहानी "कफ़न "मे निर्देशकिय पक्ष यह है कि घीसू और माधो (पिता पूत्र )निक्क्मे इसलिये हैं कि ये निक्क्मापन इनका मौन विरोध है. दोनो चौधरी जैसे अन्य धनिक और शोषक लोगो का काम सिर्फ़ इसलिये नहीं करना चाहते क्योकि वे वर्षॊ से मज़दूर किसान का शोषन ही करते आये हैं. उनका ये मौन विरोध तब फ़ूट पडता है जब चौधरी छ्ल से हडपी घीसू की ज़मीन का केस जीतकर उसी की मृत पुतोह के लिये दिखावा करने के हुये कफ़न, लहठी, सेनुर, अगरबत्ती, सेन्ट, फ़ल और बताशा चढाता है. 



माधो और घीसू इन सामानो को अस्वीकार करते हुए कह उठते है कि "जबतक बुधिया ज़िन्दा थी तबतक खाना और एक केथरी तक नहीं दिया किसी ने अब जब वो मर गयी तो नया कफ़न चाहिए? वे दोनो उन सामानो तोड़ फ़ोड इस सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं. 
इस नाटक को वर्तमान से जोड़ते हुये शिक्षा व्यवस्था, मध्यान भोजन, शराब बन्दी वर्ण व्यवस्था पे चुटेले प्रहार भी किये हैं.



पात्र परिचय 

घीसू -क्षितिज प्रकाश
माधो -रविशंकर पासवान
सतरोहन -प्रशांत कुमार
गणेश ----विवेक यादव
रघु ----पवन कुमार अपूर्व
गोपाल बाबू -रणधीर कुमार
चौधरी जी -यशवंत राज
तोताराम --तरुणएश कुमार
चौकीदार एक -बिनोद हाजीपुरी /अमर सिंह राजपूत
चौकीदार दो -सुधाशु कुमार
लाईट -सोनू कुमार
साउंड -तरुणेश कुमार

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3, टुटल तागक एकटा ओर
लेखक – महेंद्र मलंगिया 
परिकल्पना व निर्देशक: अभिषेक देवनारायन
प्रस्तुति : रंग अभ्युदय 

कथासार

किसी टूटे हुए धागे के दोनों सिरों के सामने, क्या यह प्रश्न उठेगा कि टूटा हुआ सिरा वह खुद है...? या यह, कि जो टूटा हुआ है वह उस धागे का दूसरा सिरा है, वो नहीं... ? जीवन के पोले से टूटे हुए धागे के दोनों सिरों की कथा-व्यथा है यह नाटक। जैसे किसी पगडंडी के किनारे बरगद के पेड़ के नीचे गिरा हुआ एक घोंसला और चारो तरफ उड़ते हुए प्रेमी चिड़ा-चिड़ी के टूटे पंख। क्या घोंसला फिर से बसेगा या कि बवंडर में सबकुछ उजड़ गया?  

जीवन के अच्छे-बुरे, श्वेत-स्याह राग-रंग, अन्हरिया-इजोरिया में रचा-बसा प्रेम और घृणा, व्यक्ति की अस्मिता, निर्णय लेने का सामर्थ्य और अवसर, किसी एक क्षण की पीड़ा को जीवनपर्यंत भोगने के लिए अभिशप्त होना, आदि आदि अनेकों द्वंद और उससे जूझते दो व्यक्तियों का आर्तनाद है यह नाटक। भीषण आंधी में थके हुए पत्तों के बीच सरसराती एक कानाफूसी – ‘क्यूँ चले गए छोड़ के मुझे...?’ और जबाब में – ‘ये अब मत पूछो...!’ क्या फिर से आने वाली उस भयंकर आंधी में डाल से वह पत्ता जुड़ा हुआ ही रहेगा या अलग हो जाएगा सदा के लिए? समय-काल बदल रहा है और साथ ही जीवन का रूप-रंग-चाल-ढाल सब। कुछ चीज़ें सही नहीं लगती हैं और कुछ जैसे साफ अपरिचित, फिर भी जो सामने है, उस परिस्थिति से विमुख होना असंभव है। इसलिए जीवन के जरुरी निर्णय गंभीर मंथन की मांग करते हैं, और साथ ही स्वीकार्यता और नए परिवर्तन को आत्मसात करने का सामर्थ्य भी। टूटे हुए धागे के दोनों सिरों के बीच उचित-अनुचित, होश और आवेश के बीच की खींचतान है यह नाटक।    

मंच पर

 बिन्नी : सुनीता झा
 पुरुष : काश्यप कमल 

पार्श्व

 प्रकाश –. नीरज कुंदेर
 पेंटिंग्स – सर्वप्रिया झा
 आभार : यदुवीर भारती, बजरंग मंडल, श्यामा चरण, मुकेश झा मिक्कू  
  : स्व0 प्रणव नार्मदेय के कविता ‘संक्रमित सम्बन्ध’
लेखक
महेंद्र मलंगिया
परिकल्पना/निर्देशन अभिषेक देवनारायन
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 आज के अतिथि

 १. डा रंजना झा, अध्यक्ष,संस्कार भारती, उत्तर बिहार प्रांत
२. डा विद्या चौधरी, पुरातत्वविद 
३. ईo राम नरेश शर्मा, उपाध्यक्ष,बज्जिका विकास परिषद
४.पंकज कुमार, कार्यकारी अध्यक्ष, संस्कार भारती पटना महानगर बिहार प्रदेश
५.. सायन कुणाल, समाजसेवी

मीडिया प्रभारी मनीष महिवाल