आरा। शीतकालीन वाचना के तहत नगर प्रवास कर रहे अध्यात्मयोगी जैन संत आचार्य विशुद्धसागर महाराज जी ने धर्मसभा में कहा कि हे मित्र! जबतक पुण्य तेरे साथ है तबतक तेरे साथ जगत है, जैसे ही पाप का उदय आयेगा संसार के लोग ही नहीं, अपितु अपने सगे-सबंधी भी मुख मोड़ लेंगें। जैसे मिश्री अपनी मिठास को नहीं छोड़ती है, उसी प्रकार सज्जन पुरुष अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ते हैं।
जैसा जिसका चित्त होगा। वैसा उसका चाल-चलन होगा। मित्र! कहीं पर भी पहुँचो तो सर्व-प्रथम वहां की रीति-नीति समझो। अनुकूलता में तो सभी खुश रहते है, पर वीर वह है जो प्रतिकूलता में, संकटों में शांत रह सके। जिसके अंदर शील, संयम, श्रद्धा का नीर भरा है वह पूर्ण कलश के समान मंगल-स्वरूप है। अरिहंत भगवान परम्-मंगल स्वरूप है। जो सूर्योदय होने पर नित प्रति प्रभु के दर्शन करता है, वह पंचम काल में परम-पुण्यात्मा जीव है। वही वक्ता श्रेष्ठ होता है जो श्रोता की पीड़ा को दूरकर मानसिक अशांति को दूर कर दे।
उन्होंने कहा कि आज का आदमी पुण्य करना नहीं चाहता, लेकिन पुण्य के फल को पाना चाहता है, पाप करता है लेकिन पाप के फल को भोगना नहीं चाहता। अच्छा बनने की इच्छा करना पुण्य है और अच्छा दिखने की इच्छा करना पाप है। पुण्य-पाप से मुक्त कराने वाला, जीवन को प्रकाशित, महकाने एवं हल्का बनाने वाला तत्व है। जब आप कोई घिनौना कृत्य करते हैं, झूठ बोलते हैं, तब मन ही मन बुरा लगता है।
इस बुरा लगने का कारण मात्र इतना ही है कि आपने अशुभ परिणामों को आमंत्रित कर लिया है, इसलिए आप उदास हैं। जब आप कोई सुकृत्य, पूजा-भक्ति, श्रेष्ठ कार्य, परोपकार करते हैं। उस समय आपके अंदर खुशी आनंद की वर्षा होने लगती है। इसी को पुण्य कहते हैं। जो जीवन को आनंद की अनंत यात्रा में ले जाए, जो जीवन के महोत्सव में शामिल होने की प्रेरणा दें, जो जिनेंद्र प्रभु संतों के चरणों में ले जाकर खड़ा कर दे, बस वही पुण्य है। मन में दया, करूणा और त्याग की भावना रखकर हमें जन्म से ही नहीं कर्म से मनुष्य बनना है, हमें उत्तम कुल, उत्तम शरीर मिला है उस पर घमंड नहीं करते हुए गर्व करना चाहिए।
शाश्वत सुख पाने के लिए त्याग की भावना रखनी चाहिए। यह शरीर हमें उधार में मिला है और आत्मा हमारी मूल है। व्यक्ति ऊधान का तो ध्यान रखता है। उसका सजाने, संवारने में समय लगता है, लेकिन जो हमारी मूल पूंजी है आत्मा उसका ध्यान नहीं रखता है। मन में शुभ भावों से मन, पुण्य, वचन के द्वारा अन्य को आत्महित की बातें तथा अच्छी सलाह देने से वचन पुण्य व काया के साथ सेवा करते हुए अपनी शक्ति का सदुपयोग करने से काया का पुण्य होता है।
पवित्र आत्माओं को नमस्कार करने से नमस्कार पुण्य का बंध होता है। उन्होंने कहा कि जगत में सभी आत्माओं का आत्म कल्याण कभी किसी भी काल में संभव नहीं है फिर भी जिन पवित्र आत्माओं के अंतर्मन में जगत के सभी जीवों के आत्म कल्याण की शुभ भावना पैदा होती है वे विशिष्ट आत्माएं तीर्थंकर नाम का पुण्यबंध करती है।
आपका-निलेश कुमार जैन
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