पटना। अंसारी सवर्णों का टाइटल था, जिसे 1880 के बाद से जुलाहों ने भी अपनाना शुरू कर दिया। हामिद अंसारी और मुख़्तार अंसारी सवर्ण मुसलमान माने जाते हैं। इन्हें "मिल्की" भी कहा जाता है क्योंकि इनके पास ज़मींदारी थी। इसी तरह, जैसे सिद्दीकी उपनाम शेख और मनिहार दोनों लगाते हैं, या शर्मा ब्राह्मण भी होते हैं और शायद बढ़ई भी। ठाकुर नाई भी हो सकते हैं और राजपूत भी। आप ध्यान दें कि 1857 के विद्रोह के बाद सर सैयद अहमद खान ने "बदजात जुलाहा" कहा, न कि "बदजात अंसारी"। भारत की पसमांदा बिरादरियों ने इस अपमान से बचने के लिए अशराफ़ टाइटल लगाना शुरू किया। उदाहरण के तौर पर, जुलाहों ने अंसारी उपनाम अपनाया और कसाइयों ने कुरैशी।
यह प्रक्रिया एम.एन. श्रीनिवास के "संस्कृतिकरण" सिद्धांत का हिस्सा थी, जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों की परंपराओं को अपनाती हैं। हालांकि, इस बदलाव से पसमांदा समाज को कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ। उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार केवल नाम तक सीमित रहा। असली सुधार राजनीतिक भागीदारी से आता है, लेकिन पसमांदा समाज को हमेशा राजनीति में हाशिए पर रखा गया। इस दौरान कुछ नेताओं ने पसमांदा समाज को जागरूक करने की कोशिश की। मौलाना आसिम बिहारी ने मोमिन कॉन्फ्रेंस शुरू की, जो राजनीतिक जागरूकता फैलाने का काम कर रही थी। यह संगठन अशराफ़ राजनीति को चुनौती दे रहा था और पसमांदा मुसलमानों में आत्मसम्मान की भावना पैदा कर रहा था।
1934 में मोमिन कॉन्फ्रेंस के एक अधिवेशन में मौलाना करीम बक्श अबू अता अंसारी ने प्रस्ताव रखा कि जुलाहे अपने नाम के साथ "शेख अंसारी" या "शेख मोमिन" लिखें। यह प्रस्ताव पारित हो गया, और आज भी कुछ अंसारी अपने नाम के साथ मोमिन लिखते हैं। जाति प्रमाणपत्र में भी कई बार "मोमिन अंसारी" लिखा मिलता है। पसमांदा समाज का संघर्ष केवल सामाजिक पहचान तक सीमित नहीं था; यह आत्मसम्मान और बराबरी के अधिकार की लड़ाई भी थी। ब्रिटिश शासनकाल में जुलाहे आर्थिक शोषण का शिकार थे। ज़मींदार वर्ग द्वारा लगाए गए कर, जैसे करघा टैक्स, उनके आर्थिक बोझ को बढ़ाते थे। 1911 की जनगणना में उन्होंने अपनी जाति "मोमिन अंसार" के रूप में दर्ज कराई, ताकि उनकी स्थिति बेहतर हो सके।
20वीं सदी में अंसारी समुदाय ने अपनी पहचान मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए। उन्होंने अरबी नाम अपनाए और उर्दू भाषा को प्राथमिकता दी। हालांकि, उच्च जातीय मुसलमानों से उन्हें लगातार विरोध का सामना करना पड़ा।आज भी पसमांदा समाज अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। अशराफ़ राजनीति ने हमेशा उनके आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की है। जैसे हिंदू सवर्णों ने डॉ. अंबेडकर को केवल महार जाति का नेता बनाने की कोशिश की थी, वैसे ही अशराफ़ राजनीति पसमांदा आंदोलन को सिर्फ अंसारी समुदाय तक सीमित करना चाहती है। लेकिन समय के साथ पसमांदा समाज अपनी गलतियों से सीखते हुए आगे बढ़ रहा है।
अंसारी समुदाय का इतिहास हमें सिखाता है कि कैसे एक समाज अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। उनके प्रयास हमें प्रेरणा देते हैं कि आत्मसम्मान और बराबरी के लिए लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।
अब्दुल्लाह मंसूर
पसमांदा डेमोक्रेसी