1857 में जब बहादुर शाह ज़फ़र से ये कहा गया कि अब हिंदुस्तान हार चुका है और ऐसे में उनकोअंग्रेज़ों का विरोध करने के बजाये अपनी जान की भीख मांगनी चाहिए तो ज़फ़र ने ये शेर जवाब में कहा था.वो मानते थे कि जब तक क्रांतिकारियों में ईमान है तब तक उनके पराक्रम की गूँज लंदन तक रहेगी और देश पराजित न होगा.
आज के समय में ओछी राजनीति के चलते आम समझ ये हो चली है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका या तो थी ही नहीं या न के बराबर थी.इसके पीछे एक वजह अंग्रेज़ोंं का वो प्रोपेगंडा था जिसके तहत वो हिंदुस्तानी मुसलमान और हिंदु को लड़ाना चाहते थे.
बदक़िस्मती से आज भी बहुत से लोग उनके बहकावे में हैं.पिछले सात दशकों से इतिहास की किताबों में जहां जहां भारत के स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र आया है वहां वहां मुसलमानों का नाम नदारद पाया गया.ऐसा लगता है जैसे कि इस आज़ादी की लड़ाई में भारतीय मुसलमान थे ही नहीं.
सच्चाई इस धारणा के ठीक उलट है. 2019 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1857 से 1947 तक देश पर शहीद हुए सेनानियों की एक डिक्शनरी का विमोचन किया था. एक आंकड़े के अनुसार इस डिक्शनरी में लगभग एक तिहाई नाम भारतीय मुसलमानों के हैं.अब समय आ गया है जब कि इतिहास के नाम पर परोसी गयीं ऐसी ग़लत धारणाओं को सही किया जाए.
इतिहास का सच ये है कि अंग्रेज़ों के भारत पर राज को शुरू से ही हिंदु और मुसलमान दोनों ने ना सिर्फ़ नकारा है बल्कि उसके ख़िलाफ़ संघर्ष भी किया है.1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर में बंगाल के नवाब की फ़ौज के हार जाने के बाद अंग्रेज़ों के हाथ में बंगाल सूबे का प्रशासन आ गया था.
लेकिन आम हिन्दुस्तानियों ने इसको स्वीकार न किया और विदेशी शासन के विरुद्ध हथियार उठा लिये.अंग्रेज़ हुकुमत इतनी दमनकारी थी कि उसकी नीतियों के चलते 1770 के अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी भूख के हाथों मारी गयी.
बक्सर के युद्ध से कुछ पहले ही मुसलमान फ़क़ीर और हिंदु संन्यासी हथियार ले कर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध का मोर्चा खोल चुके थे. फ़क़ीर एवं संन्यासी विद्रोह के नेता थे मजनू शाह.मजनू शाह कानपुर के रहने वाले एक सूफ़ी थे और उनको बीरभूम के एक सूफ़ी, हमीदुद्दीनने कहा था कि "तुम संन्यासियों के साथ गठजोड़ कर के अंग्रेज़ों से लड़ो, और उनका ख़ज़ाना और चावल लूट कर ग़रीबों में बाँट दो."
इसके बादमजनू शाह के नेतृत्व में हज़ारों फ़क़ीर और संन्यासियों ने अंग्रेज़ और उसके पिठ्ठू ज़मींदारों के ख़ज़ाने लूटे और ग़रीबों में बाटें. ढाका से लेकर पटना तक जगह जगह अंग्रेज़ों के साथयुद्ध हुए जिसमें अंग्रेज़ों को अपने कई अफ़सर और फ़ौजी खोने पड़े.
1786 में मजनू शाह कीमौत के बाद विद्रोह की कमान मूसा शाह के हाथ में आई। लगभग 1800 तक चला ये विद्रोह आज इतिहास की किताबों से नदारद है. ये विद्रोहन केवल मुसलमानों का आज़ादी की जंग में गवाह है बल्कि हिंदु मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है.
अंग्रेज़ों ने बर्बरता से इस विद्रोह को ख़त्म किया लेकिन हिन्दुस्तानियों की आज़ादी की ललक को ख़त्मन कर सके.अभी इस विद्रोह को ख़त्म हुए कुछ बरस भी न गुज़रे थे कि सय्यद अहमद बरेलवी, हाजी शरीयतुल्लाह और टीटू मीर ने बग़ावत का बिगुल बजा दिया.सय्यद अहमद ने उत्तर प्रदेश से बिहार होते हुए कलकत्ता और बंबई होते हुए अफ़ग़ानिस्तान का दौरा कर के हज़ारों अनुयायी बनाये.उनको अंग्रेज़ हुकुमत के नुकसान बताये.
मराठों से गठजोड़ की कोशिशें की और अंग्रेज़ोंसे युद्ध किये.1831 में उनकी मौत के बाद पटना के इनायत अली और विलायत अली ने इस विद्रोह की कमान संभाल ली.भारत अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर इन्होंने क़बीलाइयों को इकठ्ठा कर के अंग्रेज़ फ़ौज के साथ युद्ध किये.
हज़ारों अंग्रेज़ों का नुक़सान इन युद्धों में हुआ.1852 और 1853 में जगह जगह हिंदुस्तानी सिपाहियों को इसलिये सज़ा दी गयी के वे इस विद्रोहके मौलवियों के कहने पर बग़ावत को तैयार हो गए थे। 1857 में जब विद्रोह का बिगुल बजातो सबसे पहले पटना में इस विद्रोह के नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया.
हाजीशरीयतुल्लाह और उनके पुत्र दूदू मियां ने बंगाल में किसान और आम जनमानस के साथ मिलकर अंग्रेज़ और उनके ज़मींदारों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया। उनको फ़रायज़ी कहा गया.जगह जगह इन लोगों ने अंग्रेज़ों से लोहा लिया.
टीटू मीर ने भी बंगाल में ग़रीब किसानों के साथ एक सेना का गठन कर अंग्रेज़ों से युद्ध छेड़ दिया था। कुछ इलाक़ों में तो इन्होंने अपनी अदालत तक क़ायम कर ली थी.1831 में एक युद्धके दौरान टीटू शहीद हो गए और इनके सैंकड़ों साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। ग़ुलाममासूम जो कि टीटू के सेनापति थे फांसी पर चढ़ा दिए गये.
10 मई, 1857 को मेरठ की छावनी में अंग्रेज़ फ़ौज के हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बग़ावत कर दी.जिन 85 सिपाहियों ने सबसे पहले अंग्रेज़ी फ़रमान को मानने से इंकार किया था उनका नेतृत्वशेख़ पीर अली, अमीर क़ुदरत अली, शेख़ हसनुद्दीन, और शेख़ नूर मुहम्मद था.इन 85 में अधिकतर सिपाही मुसलमान ही थे.
मेरठ से निकलकर आम शहरियों के साथ जब फौजी दिल्ली पहुंचे तो वहां उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता घोषित किया.1857 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का कारण यही है के ये युद्ध पुरे देश ने एक नेता के नेतृत्व में लड़ा था।नाना साहिब, तांत्या टोपे, बेगम हज़रत महल, कुंवर सिंह, आदि सब ने ज़फ़र को देश का बादशाह मान कर उनके नाम पर अंग्रेज़ों से लोहा लिया था.
1857 की तैयारी कई बरस से चल रही थी.हाजी इम्दादुल्लाह मुहाजिर मक्की, मौलवी अहमदुल्लाह और फ़ज़्ले हक़ ख़ैराबादी जैसे मौलाना मुस्लिम सिपाहियों को अंग्रेज़ों से बग़ावत को बरसों से उकसा रहे थे.
वो और उनके अनुयायी शहर शहर घूम कर अंग्रेज़ों के विरोध में फ़तवों का प्रचार प्रसार करते थे.इनमें से हाजी इम्दादुल्लाह ने ख़ुद मुज़फ़्फ़रनगर में हथियार उठाकर अंग्रेज़ों के दांत खट्टे किये थे.उन्होंने शामली और थाना भवन से अंग्रेज़ों को खदेड़ वहां पर हिंदुस्तानी हुकुमत क़ायम कर ली थी.
बाद में जब थाना भवन पर अंग्रेज़ों ने वापिस क़ब्ज़ा किया तो हज़ारों लोगों को या तो फांसी दी गयी या तोप से उड़ा दिया गया। दूसरी ओर मौलवी अहमदुल्लाह ने फ़ैज़ाबाद और आसपास के इलाक़ों में अपनी फ़ौज बना कर अंग्रेज़ों से लोहा लिया। उनको एक ग़द्दार हिंदुस्तानी ने अंग्रेज़ों से ईनाम के लालच में धोखे से मार डाला.
लखनऊ में बेगम हज़रत महल तो अंग्रेज़ों के लिए एक सरदर्द ही बन गयी थीं. जो अंग्रेज़ फ़ौज किसी मोर्चे पर हार न मानती थी वो भी उनके सामने पस्त हो गयी थी। अंग्रेज़ अफ़सरों ने बादमें लिखा कि बेगम जैसा सेना नायक उन्होंने इस से पहले नहीं देखा था.
पटना में पीर अली और मुज़फ़्फ़रपुर में वारिस ने हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया. उनका जुर्म था कि उन्होंने देश को आज़ाद देखना चाहा था. झज्जर के नवाब, अब्दुल रहमान ने भी देश की ख़ातिर मौत को गले से लगा लिया था.
1857 में ऐसे अनगिनत आज़ादी के दीवाने थे जिनका नाम लिखना या तो मुमकिन नहीं या हम जानते ही नहीं। जैसे कि 1857 में हरा बुर्क़ा पहनकर अंग्रेज़ों पर हमला कर एक बूढ़ी औरत ने बहुत से अंग्रेज़ों को मार गिराया था। आज हम उसका नाम भी नहीं जानते.
1857 की 'बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी'
अभी 1857 की आग ठंडी भी न हुई थी कि अंग्रेज़ों को एक बार फिर अफ़ग़ानिस्तान के सीमांत इलाक़े से चुनौती आने लगी. पठान क़बीले अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में आ गए, कई इलाक़ों पर उन्होंने क़ब्ज़ा कर लिया.
1863 में युद्ध हुआ और भारी नुक़सान उठाने के बाद अंग्रेज़ कुछ लोगों को पैसा देकर फूट डालने में कामयाब हुए. किसी तरह हज़ारों सिपाही खो कर अंग्रेज़ जीत तो गए लेकिन ख़ौफ़ उनके दिलों में बैठ गया.जांच हुई और जासूसी रिपोर्ट में पाया गया कि इस पठान विद्रोह को अंबाला से नियंत्रित किया जा रहा था.
जाफ़र थानेसरी नाम का25 साल का युवक ही पूरे भारत से सीमांत इलाक़े तक पैसा, हथियार और फ़ौजी पहुंचा रहा था. तुरंत कार्यवाही हुई और जाफ़र को पकड़ लिया गया। उनके पास जो दस्तावेज़ बरामद हुए उसके आधार पर पुरे देश से सैकड़ों गिरफ्तारियां हुई.
पटना से याहया अली को मास्टर माइंड के तौर पर गिरफ़्तार किया गया। 1864 से 1870 तक देश के कई इलाक़ों में ये मुक़दमे चले जिसमें सैकड़ों को काले पानी की सज़ा हुई। शुरू में तो अंग्रेज़ फांसी की सज़ा दे रहे थे लेकिन फिर उन्हें लगा कि ये आज़ादी के दीवाने तो शहीद ही होना चाहते हैं और फांसी पाकर ख़ुश होते हैं ऐसे में सज़ा को काले पानी में बदला गया.
जाफर, याहया, अहमदुल्लाह, अब्दुलरहीम जैसे कई आज़ादी के दीवाने काले पानी भेज दिए गए.1871 में कलकत्ते में आमिर ख़ान को काले पानी की सज़ा के विरोध में अब्दुल्लाह ने चीफ़ जस्टिस की हत्या कर दी और उसके कुछ महीने बाद शेर अली ने वाइसराय लार्ड मेयो को अण्डमान में मार गिराया.
बिपिन चंद्रपाल लिखते हैं कि इन मुक़दमों और हत्यायों ने युवावस्था में उनको आज़ादी की लड़ाई में कूदने के लिए उत्साहित किया था. त्रैलोक्य चक्रवर्ती भी लिखते हैं कि जब वो काले पानी पहुंचे तो वहां पहले से मौजूद मुसलमान देशभक्त उनको आज़ादी की लड़ाई के लाये गुर सिखाते और समझाते कि कौन सी ग़लतियाँ उनसे हुई जिस कारण वे पकड़े गए.
दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इब्राहीम ख़ान और बलवंत फड़के अपने लड़ाकों के साथ अंग्रेज़ों पर 1860 और 70 के दशक में जगह जगह हमला करते रहे.
1885 में पढ़े लिखे भारतीयों ने कांग्रेस का गठन किया इसमें भी बदरुद्दीन तय्यबजी और रहमतुल्लाह सियानी जैसे नेता शुरू से मुसलमानों की आवाज़ के तौर पर मौजूद थे.आगे चलकर डॉ. अंसारी, हकीम अजमल ख़ान, मौलाना आज़ाद, हसरत मोहानी जैसे मुसलमान कांग्रेस के अग्रणी नेता रहे.
1907 में पंजाब में किसान आंदोलन शुरू हो गया. इतिहासकार मानते हैं कि ग़दर आंदोलन की जड़ें इसी आंदोलन में हैं.लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह के साथ सय्यद हैदर रज़ा इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज़ों के हाथ तीन रेशमी कपड़े लगे जिन पर उर्दू में कुछ लिखा था.पढ़ने पर पता चला कि देवबंद के मौलाना महमूद हसन अंग्रेज़ों को देश से निकलने के लिए तुर्की, जर्मनी और अफ़ग़ानिस्तान की मदद से हिंदुस्तान के बाहर से हमला करने वाले थे.
उबैदुल्लाह सिंधी ने ये ख़त काबुल से लिखे थे जहाँ वो राजा महेंद्र और बरकतुल्लाह के साथ एक सरकार का गठन करके फ़ौज की तैयारी कर रहे थे. मौलाना उस वक़्त खुद मक्के में थे और तुर्की सरकार से मदद हासिल कर रहे थे.
देश के अंदर मौलाना आज़ाद, अब्दुल बारी फिरंगी महली, डॉ. अंसारी जैसे कई जाँबाज़ इस प्लान का हिस्सा थे.लेकिन ख़त के अंग्रेज़ों के हाथ पड़ने और विश्व युद्ध में तुर्की और जर्मनी के हार जाने से ये मंसूबा कामयाबन हो सका. मौलाना महमूद हसन और मौलाना हुसैन अहमद मदनी को मक्के से गिरफ़्तार कर माल्टा की जेल में बंद कर दिया गया. दर्जनों को हिंदुस्तान में गिरफ़्तार किया गया.
मौलाना आज़ाद जो कि इस मंसूबे का एक हिस्सा थे सिर्फ़ कांग्रेस के नेता नहीं थे वो एक क्रांतिकारी भी थे.अंग्रेज़ी सीआईडी के हिसाब से वो एक ख़तरनाक इंसान थे जिन्होंने हिज़्बुल्लाह नाम का क्रन्तिकारी संगठन बनाया था.
1700 से ज़्यादा देशभक्त इस संगठन का हिस्सा थे. उनका अख़बार अल-हिलाल देशभक्ति के लिए बंद कर दिया गया था। इस जुर्म में उनको जेल हुई थी। ये भी याद रखा जाये कि भारत छोड़ो आंदोलन, 1942 के समय वही कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे.
लगभग इसी समय प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ग़दर आंदोलन ने भी ज़ोर पकड़ा हुआ था.इसका उद्देश्य था 1857 की तरह अंग्रेज़ फ़ौज के भारतीय सिपाहियों को बग़ावत के लिए तैयार करना-रहमत अली जैसे इसके कई मुस्लिम नेताओं को फांसी की सज़ा हुई.
फ़रवरी, 1915 में सिंगापुर मेंअंग्रेज़ फ़ौज की एक हिंदुस्तानी टुकड़ी ने बग़ावत कर दी-दो दिन के लिए वहां अंग्रेज़ काराज ख़त्म रहा। अंत में इन फ़ौजियों को हरा कर गोली मार दी गयी.जिन 41 सिपाहियों को गोली मारी गयी उनमें से ज़्यादातर पंजाबी मुसलमान थे.
एक और आम लेकिन ग़लत धारणा ये है कि बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों में मुस्लिम नहीं होतेथे। सिराजुल हक़, हमीदुल हक़, अब्दुल मोमिन, मक़सुद्दीन अहमद, मौलवी ग़यासुद्दीन, नसीरुद्दीन, रज़िया ख़ातून, अब्दुल क़ादिर, वली नवाज़, इस्माइल, ज़हीरुद्दीन, चाँद मियां, अल्ताफ़ अली, अलीमुद्दीन आदि जैसे कई क्रांतिकारी जुगांतर और अनुशीलन समिति के साथ काम कर रहे थे।इन क्रांतिकारियों को काला पानी जैसी सज़ायें हुई या शहादत मिली.
पहला विश्व युद्ध ख़त्म हुआ तो अंग्रेज़ रोलेट क़ानून लाये.भारत भर में विरोध हुआ और कई नेताओं को गिरफ़्तार किया गया.ऐसे ही एक नेता सैफ़ुद्दीन किचलू थे जिनकी गिरफ़्तारी के विरोध में इकठ्ठा लोगों पर जलियाँवाला बाग़ में अंग्रेज़ों ने अंधाधुंध गोलियां बरसा दी थी.अमृतसर के उस मैदान में मरने वाले हिंदु, मुस्लिम और सिख सभी थे.
इसी के साथ देश में एक नए तरीक़े की राजनीति का उदय हुआ। धरना, प्रदर्शन की राजनीति जिसमें लोगों को अधिक संख्या में जोड़ा जाता था.ऐसे में शौकत अली, मोहम्मद अली, मौलाना आज़ाद, हसरत मोहानी आदि आज़ादी की लड़ाई के प्रमुख नेताओं के तौर पर उभरे.बी अम्मा, अमजदी बेगम, और निशात उन्नीसा जैसी मुस्लिम महिलाओं ने भी आज़ादी के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया.
सीमांत इलाक़े में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने कमान संभाल ली थी। 1930 में जब उनको अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार किया तो पेशावर में लोग सड़कों पर उतर आये.हिंदुस्तानी अहिंसा के पुजारी थे और अंग्रेज़ हिंसा के.पुलिस ने पठानों की इस भीड़ पर गोलियां बरसा के 400 के क़रीब प्रदर्शनकारियों को शहीद कर जलियाँवाला की यादें ताज़ा कर दी थी.
1930 के दशक में ही तमिलनाडु में अब्दुल रहीम, वीएम अब्दुल्ला और अब्दुल सत्तार ने हिंदुस्तान के ग़रीब किसान और मज़दूर को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में उतारा.
1941 में सुभाष चंद्र बोस नज़रबंद थे और एक रात वो अंग्रेज़ों की नज़र से ओझल हो कर पेशावर के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान पहुँच गए. मियाँ अकबर शाह नाम का उनका एक साथी इस पूरे मनसूबे में सबसे ख़ास किरदार था.
जर्मनी पहुँच कर उनके साथ आबिद हसन सफ़रनी सेक्रेटरी के तौरपर रहे और जब वे पनडुब्बी में 90 दिन का सफ़र करके जापान पहुंचे तो नेताजी के साथ आबिद अकेले हिंदुस्तानी थे.1943 में आज़ाद हिंद सरकार के गठन के समय अज़ीज़ अहमद, एमके कियानी, अहसान क़ादिर, शाह नवाज़, करीम ग़नी, और डीएम ख़ान के पास महत्वपूर्ण मंत्रालय थे.
इसके अलावा भी आज़ाद हिंद फ़ौज में मुस्लिम सिपाही आबादी के अनुपात से ज़्यादा ही थे. ख़ुद नेताजी ने बर्मा पहुँच कर बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र पर एक भाषण दिया था और 'दिल्ली चलो' का मशहूर नारा भी दिया था.नेताजी ने अलग अलग रूप में टीपू सुल्तान, नवाब सिराजुद्दौलाह और बहादुरशाह को आज़ादी के नायक के रूप में श्रद्धांजलि दी थी.
विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाहियों को गिरफ़्तार कर उनपर मुक़दमा चला. कप्तान राशिदअली की गिरफ़्तारी के विरोध में हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब कलकत्ते की सड़कों पर आगए और अंग्रेज़ों ने गोली चला दी। दर्जनों हिंदुस्तानियों ने जान दी.
दूसरी ओर आज़ाद हिंद फ़ौज के समर्थन में नौसेना के सिपाहियों और अधिकारीयों ने कर्नल ख़ान केनेतृत्व में मुंबई और कराची में अंग्रेज़ों से बग़ावत कर दी.अंग्रेज़ों ने गोलियां चलायी जिसमें दर्जनों शहीद हुए इन शहीद होने वालों में कम से कम तीन दर्जन मुस्लिम नौसैनिक भी थे.
देश, हमारा देश हिंदुस्तान, 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद हुआ.ये आज़ादी मुफ़्त में नहीं मिली.इसके लिए ख़ून बहाया गया है.इसमें मासूम बच्चों का बचपन, जवान बहनों की जवानी, हँसते खेलते परिवारों की खुशियाँ, माओं के आंसू और जवान लड़कों के सपनों की बलि है.इसमें किसी एक धर्म का हिस्सा नहीं, ये चमन सबका है। इक़बाल के शब्दों में :
हम बुलबुलें हैं इसकी
ये गुलिस्ताँ हमारा
सौजन्य :आवाज द वॉइस